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देवता: इन्द्रः ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ओ꣢ज꣣स्त꣡द꣢स्य तित्विष उ꣣भे꣢꣫ यत्स꣣म꣡व꣢र्तयत् । इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्मे꣢व꣣ रो꣡द꣢सी ॥१६५३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत् । इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥१६५३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ओ꣡जः꣢꣯ । तत् । अ꣣स्य । तित्विषे । उभे꣡इति꣢ । यत् । स꣣म꣡व꣢र्तयत् । स꣣म् । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣡र्म꣢꣯ । इ꣢व । रो꣡द꣢꣯सी꣢इ꣡ति꣢ ॥१६५३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1653 | (कौथोम) 8 » 1 » 13 » 3 | (रानायाणीय) 17 » 4 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में १८२ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में पहले व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ पुनः व्याख्या करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत्) जो (इन्द्रः) परमेश्वर ने (चर्म इव) सन्ध्या-वन्दन के लिए जैसे मृगचर्म कोई फैलाता है, वैसे ही (उभे रोदसी) दोनों द्यावापृथिवी के समान अपरा और परा नामक दोनों विद्याओं को (समवर्त्तयत्) फैलाया है, (तत्) वह (अस्य) इस परमेश्वर का (ओजः) ज्ञान-बल (तित्विषे) प्रदीप्त हो रहा है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यह जगदीश्वर की महान् कृपा है कि वह सत्पात्र ऋषियों के हृदय में पराविद्या और अपरा विद्या के ज्ञान को द्यावापृथिवी के समान फैलाता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके १८२ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्यातपूर्वा। अत्र पुनर्व्याख्यायते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत् इन्द्रः) परमेश्वरः (चर्म इव) सन्ध्यावन्दनार्थम् मृगचर्म यथा कश्चित् प्रसारयति तथा (उभे रोदसी) उभे द्यावापृथिव्यौ इव अपरापरारूपे उभे अपि विद्ये (समवर्तयत्) विस्तृणाति (तत् अस्य) परमेश्वरस्य (ओजः) ज्ञानबलम् (तित्विषे) प्रदीप्तं भवति ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

महतीयं जगदीश्वरस्य कृपा यत् स सत्पात्रभूतानामृषीणां हृदये पराविद्याया अपराविद्यायाश्च ज्ञानं द्यावापृथिवीवत् विस्तृणाति ॥३॥